Thursday, January 15, 2009

अब महफि़ल मे रंग भरना सुरु हुआ है

तर मग आता "महफ़िल" वर


जिंन्दगी ले के अरबाबे-जां चल दिये

राह सूनी हुई कारवां चल दिये


कहने आए थे महफ़िल मे इक़ दास्तां

बन के उनवाले-हर-दास्तां चल दिये


कब उठा बारे-हस्ती कि अहले



त्याला आणखीन एक प्रतिसाद मिळाला Ruminations and Musings यांच्या कडुन

बरहम (बेरहम) -

हफ़ीज मॆ उनसे जितना बदगुमा हूंवह हमसे इस कदर बरहम ना होंगे
मुहोब्बत करने वाले कम ना होंगे तेरी महफ़िल में लेकिन हम ना होंगे

त्याला उत्तर मिळाले http://kaimhanta.blogspot.com/ यांच्या कडुन

.....उचला तर मग लेखणी, नव्हे संगणकावरील की ....... या माझ्या आवाहनावर

संगणकावरील की दाबून झाली अक्क्लेची बरसात..
अरेरे,दुख्ख एव्हडेच,की व्हायरस होता त्यात ......

सुरवात मी केली होती

"न अब वो आंखो मे बरहमी है न अब वो माथे पे बल रहा है
वो हम से खु़श है, हम उनसे खु़श है ज़माना करवट बदल रहा है
खुशी न ग़म की , न गम खुशी का, अजीब आ़लम है जि़न्दगी का
चिरागे़-अफ़सुर्दा-ए-मुहब्ब्त न बु्झ रहा है न जल रहा है
"शकील" तफ़सीरे-शेर अपनी जो पूछते हो तो बस इतनी
जो नाला सीने मे घुट रहा था वो नग्मा़ बनकर निकल रहा है "

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