Wednesday, January 14, 2009

कि रकी़ब गा़लिया खाके बे-मजा न हुआ

दर्दे मिन्नत- कशे- दवा न हुआ 
मै न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

जमा करते हो क्यो रकी़बों का ?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ 

हम कहां किस्मत आजमानें जाए ?
तू ही जब खंजर-आज़मा न हुआ

कितने शीरी है तेरे लब ! कि रकी़ब  
गा़लिया खाके बे-मजा न हुआ

क्या वो नमरूद की खुदाई थी
बन्दगी मे मेरा भला न हुआ

कुछ तो पढिये कि लोग कहते है
आज " गालीब’ गजलसरा न हुआ




1 comment:

Ruminations and Musings said...

फ़ूलोंसे तो खार बेहतर हॆ
जो दामन को रोकते हॆ..

रफ़ीकोंसे तो रकीब अच्छे हॆ
जो जलकर तो नाम लेते हॆ