दर्दे मिन्नत- कशे- दवा न हुआ
मै न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
जमा करते हो क्यो रकी़बों का ?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
हम कहां किस्मत आजमानें जाए ?
तू ही जब खंजर-आज़मा न हुआ
कितने शीरी है तेरे लब ! कि रकी़ब
गा़लिया खाके बे-मजा न हुआ
क्या वो नमरूद की खुदाई थी
बन्दगी मे मेरा भला न हुआ
कुछ तो पढिये कि लोग कहते है
आज " गालीब’ गजलसरा न हुआ
1 comment:
फ़ूलोंसे तो खार बेहतर हॆ
जो दामन को रोकते हॆ..
रफ़ीकोंसे तो रकीब अच्छे हॆ
जो जलकर तो नाम लेते हॆ
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