न अब वो आंखो मे बरहमी है न अब वो माथे पे बल रहा है
वो हम से खु़श है, हम उनसे खु़श है ज़माना करवट बदल रहा है
खुशी न ग़म की , न गम खुशी का, अजीब आ़लम है जि़न्दगी का
चिरागे़-अफ़सुर्दा-ए-मुहब्ब्त न बु्झ रहा है न जल रहा है
"शकील" तफ़सीरे-शेर अपनी जो पूछते हो तो बस इतनी
जो नाला सीने मे घुट रहा था वो नग्मा़ बनकर निकल रहा है
आता यातला एखादा शब्द घेवुन पुढे सुरु करायचे आहे
उ.दा. "ज़माना "
"हमने देखा है ज़माने का बदलना लेकीन
उनके बदले हुवे तेवर नही देखे जाते "
उचला तर मग लेखणी, नव्हे संगणकावरील की
3 comments:
बरहम (बेरहम)
हफ़ीज मॆ उनसे जितना बदगुमा हूं
वह हमसे इस कदर बरहम ना होंगे
मुहोब्बत करने वाले कम ना होंगे
तेरी महफ़िल में लेकिन हम ना होंगे
.....उचला तर मग लेखणी, नव्हे संगणकावरील की .......
संगणकावरील की दाबून झाली अक्क्लेची बरसात..
अरेरे,दुख्ख एव्हडेच,की व्हायरस होता त्यात ......
शब्द : (महफ़िल),,,,
ब्लॉगलंच में फैली थी आइस क्रीमकी मिठ्ठास ...
लेकिन आए नही हमारे अमरीकी मेहमान ख़ास ...
लगता है बम्बई की उपनगरों में वोह चल पड़ी ...
ऐ दिल , उसने इक पार्टी मिस की , बड़ी .......
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