Saturday, January 17, 2009

रंजीश, तमन्ना, मुहब्बत,दिवाना, याद,

ख़फ़ा है जिंदगी कब 
जब तुही कफ़ा है खुदसे
साहील भी क्या करे
जब तुफ़ान उठा है 
खुद की होई गोद में..
आब दिखता है साहील
उचीलेहोरो सी लपेटा हुवा
चिख़ता चिल्लाता हुवा...
...Sneha  यांनी लिहीलेली ही गझल "ख़फ़ा" वर
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सर मे सौदा,  भी नही, दिलमे तमन्ना भी नही
लेकीन इस तर्के, मुहब्बत का भरोसा भी नही 

यू तो हंगामे उठाते नहीं दिवाना-ए- इश्क
मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसोंका ठिकाणा भी नही

मेहरबानी को मुहब्बत नहीं केहते ऐ दोस्त
आह अब मुझसे तेरी रंजि्शे बेजा भी नहीं

मुद्दतें गुजरी, तेरी याद भी, आई न हमें
और हम भूल, गए, हों कभी, ऐसा भी नहीं

मुंह से हम अपने बुरा तो नही कहते कि "फिराक"
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

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किस किस को बतायॆंगे जुदाईका सबब हम
तू मुझसे खफ़ा हॆ तो जमानेके लिये आ

रंजीश ही सही दिलही दुखानेके लिये आ
आ फ़िर से मुझे छोड के जाने के लिये आ

अहमद फ़राज  

हे लिहीले आहे  ----Ruminations and Musings  यांनी 

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