Saturday, January 17, 2009

दिवाना, मुहब्बत, तक्दीर, परवाना, सूरत, तमाशा

दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
वर्ना क़ही तक्दी़र तमाशा न बना दे

ऐ देखनोवालो ! मुझे हंस हंस के न देख
तुझको भी मुहब्बत कहीं मुझसा न बना दे 

मैं ढूंड रहा हूं मेरी वो शम्मा कहां है 
जो बज़्मकी हर चीज़को परवना बना दे 

आख़िर कोई सूरत भि तो हो ख़ाना-ए-दिलकी
काबा नही बनता है तो बुतख़ाना बना दे

"बेजहाद" इक गाम पे इक  सज्दा-ए-मस्ती
हर जर्रे को संगे दरे जानाना बना दे

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किस किस को बतायॆंगे जुदाईका सबब हम
तू मुझसे खफ़ा हॆ तो जमानेके लिये आ

रंजीश ही सही दिलही दुखानेके लिये आ
आ फ़िर से मुझे छोड के जाने के लिये आ

अहमद फ़राज  - 



अब आगे क्या ?

1 comment:

Ruminations and Musings said...

दिवानों की बाते है
इनको लबपर लाये कौन ?
इतना गेहेरा जाये कौन ?
खुदको यु उलझाये कौन ?

जो तु समझा अपना था
वो लमहों का सपना था
हमने दिल को समझाया
अब हमको समझाये कौन ?

तेरी गली मे हो आये
होश वही खो जाये
दिख जाये अगर तू पलभर
मैखाने मे जाये कौन ?

गली गली मे फ़िरते है
कई ठोकरें खाते है
जब तुनेही ठुकराया हमे
अब हमको अपनाये कौन ?

संदीप खरे